आज बैठा था धूप तापते हुए बालकनी में। हवा साथ मे चल रही थी तो धूप की तपिश का वो मज़ा नही मिल पा रहा था। मैंने अपनी नीलकमल थोड़ी खिसकाई और आगे की तरफ बढ़ा। पर हाल फिरभी वही था।
यूँ तो मैं सर्दियों का फैन नही हूँ। वैसे देखा जाए तो गर्मी या बारिश के extreme नेचर का भी फैन नही। हर चीज़ में मॉडरेशन पसंद कुछ ज़्यादा है हमें। लोग आजकल लिबरल भी कह डालते हैं। कुछ विषयो पे एक्सट्रेमिस्ट भी कह चुके हैं। अब लोग तो लोग ही हैं, काम हैं उनका कहना।
खैर, अभी बस ठंड की बात करते हैं। आज घर वाली सर्दी को miss कर रहा था। धूप में भी स्वेटर पेहेनके बैठना , घंटों तक, कॉमिक बुक हाथ मे लिए। फिर जब वक़्त हुआ तो , खेलते रहना बिना थके। उस दौरान हुम बड़े चाव से टेस्ट क्रिकेट भी खेला करते थे। हालांकि में कुछ खास नही खेलता था पर उत्साह हमेशा ज़ोरो पर रहता था। आलम तो कुछ ऐसा हुआ करता था कि हम रमज़ान के महीने में भी घंटों खेल लिया करते थे। क्रेजी कह लीजिए। फज्र की नमाज़ के लिए न निकले पर बैट धरके सबको जागाते हुए गांधी मैदान में दिख ज़रूर जाते थे।
गरम पानी के इलावा कुछ चूना कहर हो मानो। लकड़ी के चूल्हे पे बारी बारो पानी गर्म हो चलता और नहाने की बारी लागतो। थोड़ा टालते पर कुछ डांट सुनते गुसलखाने की जानिब चल ही देते। नहाके सीधे दौड़ते हुए धूप में। ठिठुरते हुए।
इस मौसम में बैर काफी मिलते थे। कभी कदर हम पास के एक कंपाउंड को फांदके बैर भी चुराया करते थे। और ये भी न किया कभी तो कमसेकम घर मे बुयाम में हल्दी लगाके रखे बैरों का चुपके सेवन तो ज़रूर किया है।
रातों को बड़े की निहारी सुर सुर करके खाना तो याद है ही और साथ मे मोहल्ले के चौराहे पर अंडे के कूट से हाथ सेकना भी। फिर अम्मी के चिल्लाने पर घर आते ही रज़ाई में दुबक के दादी के साथ सोना, ताकि अब्बू डांटे नही।
वो थे ठंड के दिन। और आज यहां पंखे की स्पीड को ताकते नींद को बुलाने की कोशिश जारी है।
नींद से याद आया, कल मंडे है।