आज काफी मोहलत निकालके लिखने बैठा हूँ। कुछ खास लिखने को है नही पर फिरभी मन हुआ कि कुछ लिखूं। आजकल लिखने का routine फॉलो नही होपता और न ही कुछ होता है शेयर रोज़ाना करने।

हल्की ठंड में जो यर हवा चलती है, इसमे में कम ही निकल बाहर बैठता हूँ पर साला आज ये भी कर रहा हूँ जैकेट डाले और कानों में शफल पे लगे ईरफ़ोन पर गाना.कॉम पर गाने सुनते हुए।

सुनिएगा क्या?

फिलहाल ‘मीर-ए-कारवां’ बज रहा है। लिखने में थोड़ा इफ़ेक्ट आये एहिके लिए लगा दिया है। खैर, गाने तो आप सुनते ही होंगे। कोई अच्छा हो तो बतलाइये हमभी ऐड करलेंगे प्लेलिस्ट में अपने। ऑफिस में ईरफ़ोन लगाके ही काफी लोगों से बचा जाता है, कभी कभी तो गाना बज भी न रह होता है और हम ‘हैँ?’ करते पाए जाते हैं। का किया जाए, बकैती करने वालों का ढेर है हर तरफ।

दिमाग खुदको शांत रखने देना ही नही चाहता । बताइये। पहले पूरा दोपहरी बस लेटे लेटे ही बीता लेते थे। इसी सोमवार आएं हैं गुजरात घुमके और अभी अगला कहाँ निकलना है उसका प्लानिंग होगया। कंपलेन नही कर रहे बस कह रहे है । नही सुन्ना तो सजाइए, रात होगया है। सुबह पढ़ रहे हैं इसको तो जाइये काम कीजिए , वीकेंड ठक ठका रहा है।

कितना कुछ होता है न कहने को? मतलब हम तो ऐसे ही लिखके थोड़ा कुछ बाहर उगल देते रहते हैं? ई न हो तो का करे आदमी? उमर के साथ, बतियाने वाला लोग भी कम होजाता है। बोल बताने के लिए तो कतार रहता ही है, खैर। सबका अपना अपना है।

ठहराव नही है। आता है और फिर गायब। लाइफ भी एक्सपेरिमेंट होरहा है। थॉमस एडिसन जैसा 1000 बार नही कर पाएंगे बल्ब जलाने का ट्राय। स्वदेश में आखिर में खड़ी बुढ़िया ‘बिजली’ की आस में। ओहि होना बाकी है।

कहना का का था, और का का कह गए। बकैती सीख रहे जैन हम भी। दस्तूर है अब ज़माने का।